हाल ही में दिल्ली में दिनदहाड़े VIP इलाके में बदमाश एक महिला सांसद की सोने की जंजीर छीनकर भाग निकले। उन्होंने इसकी शिकायत की। मामला सामने आते ही पुलिस एक्टिव हुई और कुछ देर में बदमाश को पकड़कर जंजीर भी बरामद कर ली। चूंकि मामला VIP से जुड़ा था इसलिए पुलिस फौरन हरकत में भी आ गई। लेकिन अगर किसी आम आदमी के साथ यही हो, तो क्या पुलिस इतनी फुर्ती दिखाएगी?
पब्लिक बनाम पुलिस : इस मामले में भी कई लोगों की प्रतिक्रिया थी कि अगर वे भी VIP होते तो उनके मामलों में भी पुलिस ऐसे ही फुर्ती दिखाती। पुलिस को लेकर इस तरह की प्रतिक्रियाएं नई नहीं हैं। दूसरी ओर पुलिस की अपनी भी शिकायतें हैं। काम का दबाव, लंबी ड्यूटी और कम संसाधनों के साथ ही कानून की पेचीदगियों को भी वे अपनी सबसे बड़ी बाधा मानते हैं। यह स्थिति किसी एक शहर या राज्य की नहीं, बल्कि कमोबेश पूरे देश की है।
बदला कानून : केंद्र सरकार ने लगभग एक साल पहले IPC की जगह BNS के जरिए न सिर्फ अपराध की धाराओं में बदलाव किया है बल्कि कई और बुनियादी बदलाव भी किए हैं। इनमें E-FIR को मान्यता देने के साथ ही जांच को वैज्ञानिक बनाने के कई प्रावधान हैं। जमानत से लेकर कोर्ट में तेजी से ट्रायल के लिए कुछ पहलुओं को भी बदला गया है। इन सभी का मकसद यही रहा कि पुलिस के साथ ही लीगल सिस्टम को भी ऐसा बनाएं कि अपराधी बच न पाएं और जांच भी वैज्ञानिक तरीके से की जाए।
आंकड़ों पर सवाल : क्या इतने भर से पुलिस की छवि सुधर पाएगी? मूल समस्या यह है कि पुलिस की परफॉर्मेंस को आंकड़ों से ही नापा जाता है। मसलन, आम लोगों की FIR दर्ज न होने शिकायत होती है। सचाई यह है कि अगर पुलिस हर शिकायत पर FIR दर्ज करती है और साल भर में दर्ज होने वाले आंकड़ों की संख्या बढ़ती है तो संसद से लेकर अखबारों तक सुर्खियां बन जाती हैं। नतीजा, पुलिस की आलोचना होती है। कई बार पुलिसकर्मियों के तबादले तक हो जाते हैं और उनके लिए अपना बचाव करना मुश्किल हो जाता है।
दिक्कतें ज्यादा : इसी तरह से अपराधों को सुलझाने का मामला भी है। पुलिस का तर्क है कि जरूरत के हिसाब से पुलिसकर्मी नहीं हैं। ऐसे में एक FIR दर्ज करने का मतलब होता है, लंबी-चौड़ी कागजी कार्रवाई। पुराने केसों को सुलझाने का ही इतना दबाव होता है कि जब तक जरूरी न हो, केस दर्ज नहीं किया जाता। कुल मिलाकर स्थिति यह होती है कि केस दर्ज करने पर मचने वाला शोर ही पुलिस को केस दर्ज न करने के लिए प्रोत्साहित करने लगता है।
क्या है हल : पहले यह आकलन होना चाहिए कि पुलिस को कर्मचारी व संसाधन उपलब्ध कराए जाएं। ज्यादा जरूरी यह है कि पुलिस की परफॉर्मेंस को देखने का पैमाना भी बदला जाना चाहिए। दर्ज होने वाले आपराधिक आंकड़ों को पैमाना बनाना गलत है। इसकी बजाए पुलिस की परफॉर्मेंस को समग्र तौर पर आंका जाना चाहिए। अगर FIR के आंकड़ों को लेकर ही पुलिस पर सवाल उठाए जाते हैं तो पुलिस FIR दर्ज न करके इस आलोचना से बचने की कोशिश करती है।
सर्वे हो : सबसे बेहतर है कि न सिर्फ FIR के आंकड़े देखे जाएं, बल्कि अपराध सुलझाने का प्रतिशत और अपराध रोकने की कवायद को भी शामिल किया जाए। पुलिस परफॉर्मेंस के लिए निष्पक्ष सर्वे हों। इसके बाद रैंकिंग के आधार पर थानों, जिलों या राज्यों की पुलिस की सही परफॉर्मेंस सामने आ सकती है। लेकिन इसमें भी सर्वे की गोपनीयता व निष्पक्षता बनाए रखना जरूरी होगा, ताकि असरदार पुलिसकर्मी अपनी रैंकिंग बढ़ाने के लिए किसी को प्रभावित न कर सकें।
पब्लिक बनाम पुलिस : इस मामले में भी कई लोगों की प्रतिक्रिया थी कि अगर वे भी VIP होते तो उनके मामलों में भी पुलिस ऐसे ही फुर्ती दिखाती। पुलिस को लेकर इस तरह की प्रतिक्रियाएं नई नहीं हैं। दूसरी ओर पुलिस की अपनी भी शिकायतें हैं। काम का दबाव, लंबी ड्यूटी और कम संसाधनों के साथ ही कानून की पेचीदगियों को भी वे अपनी सबसे बड़ी बाधा मानते हैं। यह स्थिति किसी एक शहर या राज्य की नहीं, बल्कि कमोबेश पूरे देश की है।
बदला कानून : केंद्र सरकार ने लगभग एक साल पहले IPC की जगह BNS के जरिए न सिर्फ अपराध की धाराओं में बदलाव किया है बल्कि कई और बुनियादी बदलाव भी किए हैं। इनमें E-FIR को मान्यता देने के साथ ही जांच को वैज्ञानिक बनाने के कई प्रावधान हैं। जमानत से लेकर कोर्ट में तेजी से ट्रायल के लिए कुछ पहलुओं को भी बदला गया है। इन सभी का मकसद यही रहा कि पुलिस के साथ ही लीगल सिस्टम को भी ऐसा बनाएं कि अपराधी बच न पाएं और जांच भी वैज्ञानिक तरीके से की जाए।
आंकड़ों पर सवाल : क्या इतने भर से पुलिस की छवि सुधर पाएगी? मूल समस्या यह है कि पुलिस की परफॉर्मेंस को आंकड़ों से ही नापा जाता है। मसलन, आम लोगों की FIR दर्ज न होने शिकायत होती है। सचाई यह है कि अगर पुलिस हर शिकायत पर FIR दर्ज करती है और साल भर में दर्ज होने वाले आंकड़ों की संख्या बढ़ती है तो संसद से लेकर अखबारों तक सुर्खियां बन जाती हैं। नतीजा, पुलिस की आलोचना होती है। कई बार पुलिसकर्मियों के तबादले तक हो जाते हैं और उनके लिए अपना बचाव करना मुश्किल हो जाता है।
दिक्कतें ज्यादा : इसी तरह से अपराधों को सुलझाने का मामला भी है। पुलिस का तर्क है कि जरूरत के हिसाब से पुलिसकर्मी नहीं हैं। ऐसे में एक FIR दर्ज करने का मतलब होता है, लंबी-चौड़ी कागजी कार्रवाई। पुराने केसों को सुलझाने का ही इतना दबाव होता है कि जब तक जरूरी न हो, केस दर्ज नहीं किया जाता। कुल मिलाकर स्थिति यह होती है कि केस दर्ज करने पर मचने वाला शोर ही पुलिस को केस दर्ज न करने के लिए प्रोत्साहित करने लगता है।
क्या है हल : पहले यह आकलन होना चाहिए कि पुलिस को कर्मचारी व संसाधन उपलब्ध कराए जाएं। ज्यादा जरूरी यह है कि पुलिस की परफॉर्मेंस को देखने का पैमाना भी बदला जाना चाहिए। दर्ज होने वाले आपराधिक आंकड़ों को पैमाना बनाना गलत है। इसकी बजाए पुलिस की परफॉर्मेंस को समग्र तौर पर आंका जाना चाहिए। अगर FIR के आंकड़ों को लेकर ही पुलिस पर सवाल उठाए जाते हैं तो पुलिस FIR दर्ज न करके इस आलोचना से बचने की कोशिश करती है।
सर्वे हो : सबसे बेहतर है कि न सिर्फ FIR के आंकड़े देखे जाएं, बल्कि अपराध सुलझाने का प्रतिशत और अपराध रोकने की कवायद को भी शामिल किया जाए। पुलिस परफॉर्मेंस के लिए निष्पक्ष सर्वे हों। इसके बाद रैंकिंग के आधार पर थानों, जिलों या राज्यों की पुलिस की सही परफॉर्मेंस सामने आ सकती है। लेकिन इसमें भी सर्वे की गोपनीयता व निष्पक्षता बनाए रखना जरूरी होगा, ताकि असरदार पुलिसकर्मी अपनी रैंकिंग बढ़ाने के लिए किसी को प्रभावित न कर सकें।
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