ये पैरों की रक्षा के लिए जूते नहीं पहनते, उन्हें किसी के सिर पर तान कर मारने के लिए पहनते हैं। जब तक इनके जूते इनके पैरों में रहते हैं, इन्हें काटते रहते हैं। काट-काट कर इन्हें याद दिलाते रहते हैं कि हे मूरख, तू भूल गया कि तूने ये जूते किसलिए खरीदे थे? इससे तुझे उस हिंदुत्व की रक्षा करना था- जिसने अभी-अभी सनातन की खाल ओढ़ रखी है। गधे, तूने इन्हें सनातन-विरोधियों के सिर पर मारने के लिए खरीदा था मगर तू इन्हें पहनने के मोह में पड़ गया।भौतिकता के जंजाल में फंस गया है। जूते का युगानुकूल सनातनी उपयोग करना भूल गया है। इन्हें खरीदने में लगे चंद रुपयों के मोहपाश में बंध गया है।
तू इसी तरह इन्हें पहनता चला गया तो तुझे इन जूतों से और इन जूतों को तुझसे प्यार हो जाएगा। फिर हिंदुत्व उर्फ सनातन, वहीं का वहीं धरा रह जाएगा। आगे अपनी विजय पताका फहरा नहीं पाएगा। फिर तुझमें और उनमें क्या अंतर रह जाएगा, जिनके लिए जूता केवल पैरों में पहनने की चीज है? इसलिए तू इन्हें किसी के सिर पर तान कर मार। सच्चा सनातनी है तो तनातनी पैदा करके दिखा। जल्दी से जल्दी अपना कोई दुश्मन ढूंढ। मुसलमान न मिले तो दलित का सिर आखिर किसलिए है? वह जितने भी बड़े पद पर हो, दलित है! एक जूता निशाने पर न लगे तो दूसरा मार! सनातन युक्त होकर जूता-मुक्त हो!
यह 'सनातन' की सनातन पुकार ही थी, जो अब वकालत का अधिकार खो चुके वकील साहब ने सुनी और जूता चला दिया! यह उन्हीं काटने वाले जूते से पैदा हुआ दर्द था, यह वही 'ईश्वरीय आदेश' था, जिसका पालन करते हुए उस वकील ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पर जूता फेंका। यह जूतों की और उस वकील की असफलता नहीं कि निशाना ठीक नहीं लगा, बीच में अटक कर भटक गया। जूतों की कामयाबी इसमें है कि आजाद भारत के इतिहास में ये कोर्ट रूम में पहली बार चले। हिंदुत्व उर्फ सनातन के 11 साल के इतिहास में जूता फेंककर वकील फेमस हो गया और उससे अधिक उसका जूता प्रसिद्ध हो गया!
मोदी युगीन हर सनातनी की सबसे बड़ी आकांक्षा नाथूराम गोडसे बनने की है लेकिन इनकी मुश्किल यह है कि इन गोडसों को गांधी नहीं मिल रहे। एक गोडसे को मुख्य न्यायाधीश मिले तो उन पर जूता फेंक दिया। अब सनातनियों-तनातनियों के ये जूते एक-डेढ़ हजार रुपए के नहीं रहे, अब ये ग्यारह लाख के हैं। गवई साहब ने उस वकील के जूते वापस करवाकर अनजाने में ही सनातनियों पर बड़ा उपकार कर दिया। सनातनियों को यह अमूल्य उपहार दे दिया। जज साहब भूल गए कि वापस करने पर जूते की यह जोड़ी बेहद कीमती और वंदनीय हो जाएगी। खासकर वह वाला जूता जो फेंका गया, वह ऐतिहासिक महत्व हासिल कर लेगा। हिंदुत्व के म्यूज़ियम की वह शोभा बढ़ाने लगेगा!
भविष्य में किसी सनातनी के जूते अपने उद्देश्य में सफल भी रहे तो वे इस जूते के 'गौरवमयी' स्थान को हासिल नहीं कर पाएंगे। कोई और वकील अब गोडसे की जगह नहीं ले पाएगा! यह जूता अब सनातनी होकर पूजनीय हो चुका है। एक दिन इसका भी मंदिर बनेगा और राम मंदिर में मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा करने वाले इस मंदिर का भी उद्घाटन सहर्ष करेंगे और हम ताली-थाली बजाएंगे!
2014 के बाद उभरे सनातनियों की यह हार्दिक इच्छा रहती है कि वे जीवन में कम से कम एक ऐसा काम अवश्य करें, जिसके बारे में कहा जा सके कि यह आजादी के बाद पहली बार हुआ है। जैसे किसी प्रधानमंत्री ने मई 2014 से पहले हर वाक्य में झूठ नहीं पिरोया था, किसी ने इससे पहले नाली की गैस से चाय बनाने के वैज्ञानिक प्रयास की प्रशंसा भी नहीं की थी, तब एक सनातनी प्रधानमंत्री पैदा हुआ और उसने यह कर दिखाया।
प्रधानमंत्री के ही नक्शे कदम पर चलते हुए इस सनातनी वकील ने जज पर जूता फेंकने का 'ईश्वर प्रदत्त' कार्य संपन्न किया। हिंदुत्व के अंतरिक्ष का यूरी गगारिन इतनी ही दूर जा सकता था।वैसे यूरी गगारिन बनने के अन्य प्रार्थी तो इससे भी आगे जाने की इच्छा रखते थे मगर पिछड़ गए। एक सनातनी युवा जज साहब का सिर दीवार पर जोर से मारकर फोड़ना चाहता था, एक और की इच्छा इनके चेहरे पर थूकने की थी। ये धरी की धरी रह गईं मगर जब तक सुप्रीम कोर्ट है और जब तक सौ प्रतिशत जज इनके अपने नहीं हो जाते, तब तक गोडसे बनने की कतार में खड़े होने वाले हतोत्साहित नहीं होंगे!
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