देश में इस समय चुनाव का माहौल है। 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं। इनमें से कुछ जगह वोटिंग हो गई है तो कुछ स्थानों पर मतदान होना बाकी है। मतदाता जब भी पोलिंग बूथ पर वोट देने जाता है तो उसकी हाथ की उंगली पर नीली स्याही लगा दी जाती है। ये स्याही लंबे समय तक मिटती नहीं है। ऐसा एक ही व्यक्ति द्वारा दोबारा वोट न दिए जाए इसलिए किया जाता है।
आसानी से क्यों नहीं मिटती वोट की नीली स्याहीइस बीच सोशल मीडिया पर एक सवाल उठा कि वोट देते समय जो स्याही उंगली पर लगाई जाती है, वह आखिर इतनी आसानी से मिटती क्यों नहीं है? इसमें ऐसा क्या होता है जो ये लंबे समय तक उंगली पर रहती है और फिर अपने आप गायब हो जाती है। आज हम आपको इस वोटिंग स्याही से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें बताने जा रहे हैं।
सिर्फ इस कंपनी के पास है स्याही बनाने की अनुमतिचुनाव में इस्तेमाल होने वाली स्याही भारत में केवल एक ही कंपनी बनाती है। इस कंपनी का नाम मैसूर पेंट एंड वार्निश लिमिटेड है। ये कंपनी वोटिंग की नीली स्याही को रिटेल में नहीं बेचती है। इसे सिर्फ सरकार या फिर चुनाव से जुड़ी एजेंसियां ही खरीद सकती हैं। पूरे भारत में वोटिंग की नील स्याही की पूर्ति ये अकेली कंपनी ही करती है।
मैसूर पेंट एंड वार्निश लिमिटेड के पास 1962 से राष्ट्रीय अनुसंधान विकास निगम द्वारा दिया गया विशेष लाइसेंस है। इस वर्ष ECI ने केंद्रीय कानून मंत्रालय, राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला और इस निगम की मदद से कंपनी के साथ चुनावों में स्याही सप्लाई करने का कान्ट्रैक्ट साइन किया था। ये कंपनी भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी चुनावी स्याही सप्लाई करती है।
इसलिए स्किन से तुरंत नहीं मिटती वोटिंग स्याहीवोटिंग की ये नीली स्याही सिल्वर नाइट्रेट केमिकल को मिलाकर बनाई जाती है। इस स्याही में मौजूद सिल्वर नाइट्रेट शरीर में उपस्थित नमक के साथ मिलकर सिल्वर क्लोराइड बनाते हैं। यह सिल्वर क्लोराइड जब पानी में घुलता है तो स्किन से जुड़ा रहता है। स्याही यदि पानी के संपर्क में आए तो ये नीली से काली पड़ जाती है। यह स्याही जल्दी नहीं मिटती है।
स्याही को मिटने में कम से कम 72 घंटे लगते हैं। दरअसल इस समायान्तराल में स्किन के सेल्स पुराने होकर उतरने लगते हैं, जिससे स्याही धीरे-धीरे मिटने लगती है। इस स्याही को इलेक्शन इंक या इंडेलिबल इंक भी कहा जाता है। भारत में पहले चुनाव के दौरान स्याही लगाने का नियम नहीं था। लेकिन रिवोटिंग रोकने के उद्देश्य से इसे 1962 के चुनाव से लागू किया गया।
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