अपनी ज़मीन ख़रीद कर उस पर भव्य स्टूडियोज़ खड़ा करना और अपने स्टूडियो में फ़िल्मों का निर्माण करने का चलन 1930 से लेकर तक़रीबन 1960 तक चला.
'आरके स्टूडियोज़', 'राजकमल कलामंदिर' और 'फ़िल्मिस्तान' ऐसे ही स्टूडियोज़ रहे हालांकि आरके स्टूडियोज़ बाद के सालों तक रहा.
लेकिन उस दौर की एक फ़िल्म कंपनी थी जो चाहकर भी अपना स्टूडियो नहीं बना पाई हालांकि ये क़रीब 60 साल तक फ़िल्में बनाती रही. ये प्रोडक्शन हाउस था चेतन आनंद और देव आनंद का 'नवकेतन'.
ये बात कम लोगों को मालूम है कि चेतन और देव आनंद ने 1950 के आसपास मुंबई के गोरेगांव में अपना स्टूडियो खड़ा करने के लिए बड़ा प्लॉट ख़रीदा भी था, मगर वो प्लॉट किसी क़ानूनी पचड़े में पड़ गया.
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ज़मीन मिली नहीं और कुछ साल में फ़िल्म इंडस्ट्री में दौर भी बदलने लगा था. स्टूडियो चलाने में बहुत समय और ख़र्चा लगता था इसलिए नवकेतन ने स्टूडियो बनाने का विचार त्याग दिया और सालों साल महबूब ख़ान के महबूब स्टूडियो से ऑपरेट होता रहा.
महबूब ख़ान देव आनंद के क़रीबी थे और जब तक देव आनंद ज़िंदा रहे उनके लिए एक कमरा महबूब स्टूडियो में हमेशा रहा.
महबूब स्टूडियो से ही सही, नवकेतन फ़िल्म्स, जो उस वक्त नवकेतन स्टूडियो के नाम से भी जाना जाता था, इसकी कहानी के बिना उस दौर के हिंदी सिनेमा की कहानी अधूरी रहेगी.
नवकेतन ने वो इतिहास रचा, जो आज भी सिनेमा के गलियारों में गूंजता है.
इस स्टूडियो ने सही मायने में हिंदी सिनेमा में शहरी यानी अर्बन हीरो वाली प्रोग्रेसिव फ़िल्मों की शुरुआत की.
उस दौर के दूसरे स्टूडियोज़ जैसे वी शांताराम, राज कपूर या महबूब ख़ान अमीर-ग़रीब, सामाजिक या ग्रामीण कहानियों पर फ़िल्में बना रहे थे, लेकिन इनसे अलग नवकेतन की फ़िल्मों का मिज़ाज पूरी तरह शहरी था.
ज़्यादातर कहानियां कामकाजी तबके के नायक की होती थीं, जो छोटे कस्बों से महानगरों की चकाचौंध में आता, सपनों और प्यार के लिए संघर्ष करता और अपना रास्ता तलाशता था. इनकी फ़िल्मों में हॉलीवुड फ़िल्मों का असर भी साफ़ था.
मगर इन फ़िल्मों में सिर्फ़ चमक नहीं, नए भारत और उभरते मध्यम वर्ग की रूह भी थी.
हर स्टूडियो की एक पहचान एक बड़ी फ़िल्म से होती है, जैसे महबूब स्टूडियो की 'मदर इंडिया' या आरके स्टूडियोज़ की 'आवारा' से.
नवकेतन की ऐतिहासिक फ़िल्म थी 1965 में रिलीज़ हुई 'गाइड' जिसे हिंदी सिनेमा की बेहतरीन फ़िल्मों में गिना जाता है.
मगर इतिहास एक या दो फ़िल्मों से नहीं बनता उसे सालों-साल मेहनत से गढ़ना पड़ता है. नवकेतन ने 1950 से लेकर 2011 तक 36 फ़िल्में प्रोड्यूस कीं और बॉलीवुड के सबसे लंबे चलने वाले बैनर्स में से एक रहा.
1948 में बॉम्बे टॉकीज़ की फ़िल्म 'ज़िद्दी' हिट रही थी और देव आनंद बॉलीवुड के उभरते हुए स्टार बन गए.
वहीं वामपंथी विचारों वाले उनके बड़े भाई चेतन आनंद इप्टा से जुड़े थे और कुछ ही साल पहले अपनी बेहद चर्चित पहली फ़िल्म 'नीचा नगर' निर्देशित की थी.
इस फ़िल्म ने अंतराष्ट्रीय स्तर पर धूम मचाई थी और कान फ़िल्म फ़ैस्टिवल में अवॉर्ड जीतने वाली पहली भारतीय फ़िल्म बनी थी.
दोनों भाइयों के सपने बड़े थे और दोनों बिना किसी के दख़ल के अपने अंदाज़ की फ़िल्में बनाना चाहते थे. इसी इरादे के साथ 1949 में अपने बैनर का आग़ाज़ किया.
नाम रखा 'नवकेतन' जो चेतन आनंद के बेटे केतन के नाम पर था हालांकि इसका मतलब 'नया ध्वज' भी है. ये भी तय था कि नवकेतन की हर फ़िल्म में हीरो देव आनंद ही होंगे.
नवकेतन की पहली पेशकश थी 'अफ़सर' (1950). जो रूसी लेखक निकोलाई गोगोल के नाटक 'द इंस्पेक्टर जनरल' से प्रेरित एक थिएटरनुमा फ़िल्म थी.
यह चेतन के वामपंथी विचारों से प्रभावित 'नीचा नगर' की तरह ही एक आर्ट फ़िल्म थी, जो देव आनंद की चमकती कमर्शियल इमेज के एकदम विपरीत थी. 'अफ़सर' बुरी तरह फ्लॉप हुई.
अब देव आनंद को ज़रूरत थी एक ऐसे निर्देशक की, जो नवकेतन के लिए हिट फ़िल्म बना सके और उनकी ये तलाश आकर रुकी गुरुदत्त पर जो प्रभात फ़िल्म कंपनी के दिनों से उनके क़रीबी दोस्त थे.
उन दिनों देव और गुरु दोनों हॉलीवुड की थ्रिलर फ़िल्मों के दीवाने थे. गुरुदत्त ने अब तक कोई फ़िल्म निर्देशित नहीं की थी लेकिन संघर्ष के दिनों में एक-दूसरे से वादा किया था कि जो भी पहले कामयाब होगा वो दूसरे को मौक़ा देगा.
देव आनंद ने गुरुदत्त पर दांव खेला और नवकेतन ने 'बाज़ी' (1951) बनाई. यह एक मसालेदार क्राइम थ्रिलर थी जिसमें निर्देशक गुरुदत्त ने देव आनंद को एक बिलकुल नए स्टाइल में पेश किया.
फ़िल्म में रोमांस था, वैंप थी, कैबरे था और एक से बढ़कर एक हिट गाने. "अपने पे भरोसा हो तो एक दांव लगा ले"- ये गीत जैसे खुद देव आनंद के फ़ैसले की गूंज थी.
'बाज़ी' सुपरहिट हुई. नवकेतन स्टूडियो, जो 'अफ़सर' की हार से डगमगा गया था, अब पूरी रफ़्तार से दौड़ पड़ा.
और गुरुदत्त? वे आने वाले सालों में हिंदी सिनेमा के नए जादूगर बनकर उभरे.

चेतन आनंद का सिनेमा अलग था. अपने अंदाज़, अपनी सोच और अपनी कला में डूबा हुआ. लेकिन कमर्शियल सिनेमा की दुनिया बेरहम थी.
उनकी निर्देशित अगली फ़िल्म 'आंधियाँ' (1952) औंधे मुँह गिरी. नवकेतन की अगली फ़िल्म 'हमसफ़र' (1953) भी नाकाम रही. नवकेतन स्टूडियो और चेतन आनंद को अब एक हिट फ़िल्म की सख़्त ज़रूरत थी.
इसी मोड़ पर नवकेतन में एंट्री हुई सबसे छोटे भाई विजय आनंद उर्फ़ गोल्डी की. महज़ 15 दिनों में उन्होंने 'टैक्सी ड्राइवर' (1954) की कहानी लिख डाली. चेतन आनंद और उनकी पत्नी उमा ने स्क्रीनप्ले में जान डाली.
बड़े भाई निर्देशक बने, मंझले भाई हीरो और छोटे भाई लेखक तीनों आनंद बंधुओं ने ऐसा कमाल दिखाया कि बॉक्स ऑफ़िस को भी आनंद आ गया.
'टैक्सी ड्राइवर' चेतन आनंद की पिछली फ़िल्मों से अलग थी. सीधी, सटीक और मेनस्ट्रीम सिनेमा से जुड़ी.
यह फ़िल्म सुपरहिट हुई और नवकेतन की नैया पार लग गई. लेकिन इस कामयाबी के बाद देव आनंद और चेतन आनंद के रास्ते अलग होने लगे.
देव आनंद अब तक बड़े स्टार बन चुके थे और अपनी इमेज और स्टारडम के मुताबिक़ कमर्शियल फ़िल्में बनाना चाहते थे जबकि जबकि चेतन अपनी विचारधारा के साथ अलग तरह का सिनेमा बनाना चाहते थे.
आख़िरकार, 1956 में आई कामयाब फ़िल्म 'फंटूश' के बाद चेतन आनंद ने नवकेतन को अलविदा कह दिया और अपना प्रोडक्शन हाउस 'हिमालय फ़िल्म्स' शुरू किया.
चेतन आनंद के जाने के बाद नवकेतन की बागडोर आई सबसे छोटे भाई विजय 'गोल्डी' आनंद के हाथों में.
महज़ 24 साल की उम्र में उन्होंने निर्देशन की कमान संभाली और बनाई 'नौ दो ग्यारह' (1957). यह एक ज़िंदादिल फ़िल्म थी, जिसने उनकी प्रतिभा की पहली झलक दी.
फ़िल्म हिट रही और नवकेतन की रफ़्तार तेज़ हो गई. इसके बाद आई 'तेरे घर के सामने', जिसे हिंदी सिनेमा की पहली रोमांटिक कॉमेडी माना जाता है और इसके बाद आयी 'काला बाज़ार' को देव आनंद की यादगार फ़िल्मों में गिना जाता है.
एक के बाद एक गोल्डी निर्देशित ये शानदार फ़िल्में देव आनंद के स्टारडम को नई ऊंचाइयों तक ले जाती रहीं और नवकेतन का नाम और भी बुलंद होता गया.
देव आनंद की शहरी हीरो की स्टाइलिश इमेज बनाने में गोल्डी ने बड़ा योगदान दिया. लेकिन इस करिश्मे को मुकम्मल किया एसडी बर्मन ने, जिनका संगीत नवकेतन की आत्मा बन गया.
'बाज़ी' के बाद से बर्मन नवकेतन की हर अहम फ़िल्म का हिस्सा रहे. उस दौर में हीरो-संगीतकारों की टीमें हुआ करती थीं. दिलीप कुमार-नौशाद, राज कपूर- शंकर जयकिशन और देव आनंद-एसडी बर्मन की टीमें यादगार और कामयाब गीतों की गांरटी मानी जाती थी.
नवकेतन ने हमेशा नई प्रतिभाओं पर दांव खेला. गुरुदत्त के असिस्टेंट रहे राज खोसला को 'काला पानी' निर्देशित करने का मौका दिया, जो एक बड़ी हिट साबित हुई.
लेकिन नवकेतन की सबसे बड़ी ताक़त देव आनंद, गोल्डी और एसडी बर्मन की तिकड़ी ही थी और इसी टीम ने रचा नवकेतन का सबसे नायाब शाहकार 'गाइड' जो इस स्टूडियो की पहचान बन गई.
इसकी शुरुआत हुई फ़िल्म 'हम दोनों' (1961) की कामयाबी से.
देव आनंद के नवकेतन में पीआर और कई दूसरे काम संभालने वाले अमरजीत फ़िल्म के निर्देशक थे हालांकि फ़िल्म में काम करने वाले कई लोगों और खुद देव आनंद का भी कहना था कि फ़िल्म के लेखक और निर्देशक गोल्डी ही थे.
'हम दोनों' बर्लिन फ़िल्म फ़ेस्टिवल में गई. वहां देव और गोल्डी की मुलाकात नोबेल पुरस्कार विजेता पर्ल एस बक से हुई. वे जूरी में थीं और 'हम दोनों' देखकर प्रभावित हुईं.
बातचीत के दौरान उन्होंने देव और गोल्डी से कहा, "मैंने एक बेहतरीन भारतीय कहानी पढ़ी है, आरके नारायण की 'गाइड'. तुम्हें इस पर एक अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म बनानी चाहिए. मैं स्क्रिप्ट लिखूंगी."
देव आनंद को सुझाव पसंद आया. उन्होंने 'गाइड' के राइट्स आरके नारायण से ख़रीद लिए. पर्ल एस बक ने भी दिलचस्पी दिखाई और हॉलीवुड के निर्देशक टैड डेनियलवस्की को इंग्लिश वर्ज़न डायरेक्ट करने के लिए मना लिया.
लेकिन जब गोल्डी ने उस इंग्लिश स्क्रिप्ट को पढ़ा, तो उन्हें लगा कि ये तो हमारी 'गाइड' नहीं है. इस कहानी को समझने के लिए एक भारतीय नज़र चाहिए थी.
हिंदी 'गाइड' को दोबारा गोल्डी ने लिखा और ये फ़िल्म गोल्डी की भी सबसे यादगार फ़िल्म बनी.
जब 'गाइड' ने तोड़ी हिंदी सिनेमा की बंदिशें!कमर्शियल सिनेमा में 'गाइड' एक बग़ावत थी, उस ढांचे के ख़िलाफ़, जहां तय था कि हीरो-हीरोइन कैसे होने चाहिए.
'गाइड' ने उन नियमों को तोड़ दिया, जो अब तक किसी भी पारंपरिक भारतीय फ़िल्म की नींव माने जाते थे. यहां न आदर्श हीरो था, न त्याग करने वाली नायिका, किरदार असलियत के क़रीब थे, इंसानी कमज़ोरियों और ख्वाहिशों से भरे हुए.
एक शादीशुदा औरत के साथ रोमांस. नायिका का अपने पति को छोड़कर हीरो के साथ 'लिव-इन' में रहना, ये सब उस दौर की फ़िल्मों और पारंपरिक समाज के लिए बेहद बोल्ड था.
राजू गाइड और रोज़ी की यह कहानी इंसानों और उनके सही-ग़लत फैसलों की थी और यही इसे अमर बना गई.
'गाइड' पहली हिंदी फ़िल्म थी जिसने चारों मुख्य फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड जीते- बेस्ट एक्टर, बेस्ट एक्ट्रेस, बेस्ट डायरेक्टर और बेस्ट फ़िल्म. ये नवकेतन का उरूज था.
लेकिन हर बुलंदी के बाद एक मोड़ आता है. गोल्डी और देव आनंद के बीच दूरियाँ बढ़ने लगीं. गोल्डी अब सिर्फ़ निर्देशक नहीं, एक्टर भी बनना चाहते थे, जबकि देव आनंद अब निर्देशन में हाथ आज़माना चाहते थे.
मुश्किल ये थी कि गोल्डी उतने अच्छे अभिनेता नहीं थे, और देव उतने बेहतरीन निर्देशक नहीं. इन ख्वाहिशों ने दोनों भाइयों के बीच एक अनकही लकीर खींच दी.
फिर भी, 'गाइड' के दो साल बाद दोनों ने मिलकर 'ज्वेल थीफ़' (1967) बनाई, एक धमाकेदार हिट! जो नवकेतन के लिए देव-गोल्डी की अंतिम हिट फ़िल्म रही.
अब देव आनंद ने बतौर निर्देशक अपनी पहली फ़िल्म 'प्रेम पुजारी' बनाई. फ़िल्म का बजट बड़ा था, एसडी बर्मन के गाने सुपरहिट थे, लेकिन फ़िल्म बुरी तरह फ़्लॉप हो गई.
गोल्डी से फिर उम्मीद थी, लेकिन उनकी निर्देशित 'तेरे मेरे सपने' (1971) भी बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुँह गिरी. इस नाकामी के साथ ही गोल्डी ने नवकेतन छोड़ दिया.
यह फ़िल्म नवकेतन के लिए एसडी बर्मन की भी आख़िरी फ़िल्म साबित हुई. दो मज़बूत स्तंभ एक साथ गिर गए. नवकेतन लड़खड़ा गया.
अब सारी ज़िम्मेदारी देव आनंद के कंधों पर थी.
देव आनंद नेपाल के शाही परिवार की एक शादी में शामिल होने गए. यहां उन्हें एक आइडिया आया जो हिप्पियों की ज़िंदगी के बारे में था. वापस लौटते ही उन्होंने इस स्क्रिप्ट पर काम करना शुरू कर दिया.
उनके मन में एक नई दुनिया थी, जहां देश के युवाओं की ज़िंदगी के अनकहे पहलुओं को दिखाया जा सकता था. यही था वह आइडिया, जो नवकेतन की अगली फ़िल्म- 'हरे रामा हरे कृष्णा' का आधार बना.
इस फ़िल्म ने न सिर्फ नवकेतन को दोबारा खड़ा किया, बल्कि संगीतकार आरडी बर्मन के संगीत ने हिंदी सिनेमा में एक नई क्रांति की शुरुआत की. फ़िल्म में नौजवानों को हिप्पी बनते हुए, ड्रग्स और सेक्स के माहौल में डूबे हुए दिखाया गया.
ऐसा विषय हिंदी सिनेमा में पहले नहीं आया था. मिस एशिया पैसिफ़िक रहीं ज़ीनत अमान को बोल्ड हीरोइन के रूप में चुना गया.
इस बड़ी हिट फ़िल्म ने देव आनंद को कामयाब निर्देशक बनाया और ये फ़िल्म नवकेतन के री-इन्वेंशन का प्रतीक बनी.
अफ़सोस कि उनके निर्देशन में ये इकलौती कामयाब फ़िल्म रही. साल 2011 तक उन्होंने नवकेतन के लिए एक के बाद एक दर्जनों फ़िल्में निर्देशित कीं लेकिन बदलते वक़्त के साथ क़दम नहीं मिला सके.
'हीरा पन्ना', 'जानेमन', 'देस परदेस', 'लूटमार', 'अव्वल नंबर' जैसी फ़िल्मों का संगीत तो हिट रहा लेकिन फ़िल्में सुपर फ़्लॉप. हर फ़िल्म के हीरो आख़िर तक ख़ुद देव आनंद ही रहे.
नवकेतन से निकलने के बाद गोल्डी आनंद ने भी 'ब्लैकमेल', 'राम बलराम' और 'राजपूत' जैसी बड़े बजट की फ़िल्में निर्देशित कीं लेकिन नवकेतन जैसी कामयाबी दोहरा नहीं पाए.
एक एक्टर के रूप में भी वो अपना कोई मक़ाम नहीं बना सके.
इसके बावजूद, नवकेतन ने अपने सुनहरे दिनों में हिंदी सिनेमा को जो धरोहर दी, वह हमेशा याद रखी जाएगी, उनकी यादगार फ़िल्में, नयी प्रतिभाओं को दिए गए मौके और बेमिसाल संगीत की छाप सिनेमा पर हमेशा रहेगी.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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