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आंबेडकर की पहली जीवनी प्रकाशित करने में क्यों आईं थीं कई मुश्किलें?

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Dhananjay Keer शंकरानंद शास्त्री ने अपनी क़िताब 'माई एक्सपीरिएंसेज़ एंड मेमोरीज़ ऑफ़ डॉक्टर बाबा साहेब आंबेडकर' में लिखा है कि वो अपनी किताबें किसी को भी पढ़ने के लिए उधार नहीं देते थे.

"डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर को दो चीजों का बहुत शौक था, किताबें खरीदने का और उन्हें पढ़ने का. जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती गई, किताबों से उनका लगाव भी बढ़ता गया."

"एक समय ऐसा आया जब उनके पास करीब सात से आठ हजार किताबें हो गईं. इनकी कीमत करीब 30 से 40 हजार रुपए या उससे ज़्यादा होने का अनुमान है."

यह जानकारी डॉ. आंबेडकर के जीवन पर लिखी गई एक पुस्तक में है, जो 1940 में प्रकाशित हुई थी. यह किताब उस समय लिखी गई, जब वह जीवित थे.

दिलचस्प बात यह है कि यह पुस्तक गुजराती भाषा में लिखी गई थी. 28 अगस्त 1940, गुजरात, गुजराती भाषा और पूरे भारत में आंबेडकरवादियों के लिए विशेष महत्व रखता है.

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इसी दिन डॉ. आंबेडकर की पहली जीवनी प्रकाशित हुई थी. यह किताब जीवनी से कहीं ज़्यादा एक मूल्यवान ऐतिहासिक दस्तावेज़ है.

इस किताब के लिखे जाने और इसके प्रकाशित होने की कहानी भी उतनी ही दिलचस्प है.

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आंबेडकर की पहली जीवनी का प्रकाशन image Amit P. Jyotikar डॉ. बीआर आंबेडकर, एस्क्वायर में आंबेडकर के 1940 तक के जीवन का विवरण दर्ज किया गया

यूएम सोलंकी की लिखी इस किताब का नाम था: डॉ. बीआर आंबेडकर, एस्क्वायर. इसमें आंबेडकर के 1940 तक के जीवन का विवरण दर्ज किया गया.

उस समय उनके किए गए सामाजिक कार्यों और उनके प्रयासों को भी इसमें शामिल किया गया. उस समय उनके बारे में लोगों की सोच को भी यह किताब दर्शाती है.

बीबीसी ने इस ऐतिहासिक जीवनी को पुन: प्रकाशित करने वाले अमित प्रियदर्शी ज्योतिकर से बात की. उन्होंने 1940 में पुस्तक के मूल प्रकाशन की पूरी कहानी साझा की.

उन्होंने बताया, "करशनदास लेउवा आंबेडकर के अनुसूचित जाति संघ से जुड़े गुजरात के एक प्रमुख नेता थे. वह डॉ. आंबेडकर की जीवनी लिखवाना चाहते थे, लेकिन उन्हें इसके लिए किसी योग्य व्यक्ति की तलाश थी. उस समय शिक्षा में जाति आधारित व्यवस्था के कारण बहुत कम दलित शिक्षित थे. ऐसे में एक सवाल यह था कि अगर कोई पुस्तक लिख भी देता है, तो कितने लोग इसे पढ़ पाएंगे?"

इसके बावजूद, करशनदास लेउवा जीवनी प्रकाशित करने को लेकर संकल्पित रहे. आखिरकार, इस जीवनी को लिखने के लिए योग्य व्यक्ति यूएम सोलंकी उन्हें मिल गए.

इसके बाद, करशनदास ने इस पुस्तक की भूमिका लिखी और उन्होंने डॉ. आंबेडकर की पहली जीवनी प्रकाशित करने के पीछे अपने इरादे और विचार को भी विस्तार से बताया.

image Indian Postal Department जीवनी का प्रकाशन आसान नहीं था, इसे छपवाने के लिए जरूरी धन एक बड़ी बाधा थी

भूमिका में करशनदास ने लिखा, "1933 में, मैंने पहली बार डॉ. आंबेडकर की जीवनी लिखने के बारे में सोचा. उस समय, आंबेडकर न केवल भारत में बल्कि विश्व स्तर पर एक बहुत ही प्रभावशाली व्यक्ति थे."

"हालाँकि, गुजरात में लोग उनके बारे में बहुत कम जानते थे. 1937 में कुमार नाम की एक पत्रिका का एक अंक मुझे मिला. उसके संपादकीय में मैंने डॉ. आंबेडकर के जीवन के कुछ दिलचस्प किस्से पढ़े."

उन्होंने लिखा, "इसके बाद उनकी जीवनी प्रकाशित करने की मेरी इच्छा बहुत बढ़ गई. मैंने अपने मित्र यूएम सोलंकी से आवश्यक जानकारी बटोरने का अनुरोध किया."

"सोलंकी ने पूरी लगन से डॉ. आंबेडकर के जीवन के बारे में बहुमूल्य सामग्री एकत्र की. इसके बाद हमने एक पत्रिका के लेख में कुछ अंश भी प्रकाशित किए."

जीवनी का प्रकाशन आसान नहीं था. इसे छपवाने के लिए जरूरी धन एक बड़ी बाधा थी. इसके लिए कांजीभाई बेचरदास दवे आगे आए और कुछ पैसे दान किए, लेकिन यह पर्याप्त नहीं था.

अंत में पुस्तक प्रकाशित कराने की पूरी जिम्मेदारी करशनदास लेउवा ने ली.

इसके परिणाम स्वरूप लेखक यूएम सोलंकी, दूरदर्शी करशनदास लेउवा और दानकर्ता कांजीभाई दवे की तस्वीरें इस पुस्तक में सम्मान के प्रतीक के रूप में छापी गईं.

अंत में डॉ.आंबेडकर की सभी शैक्षणिक योग्यताएं और डिग्रियों के साथ 28 अगस्त 1940 को डॉ. बीआर आंबेडकर, एस्क्वायर शीर्षक से यह पुस्तक प्रकाशित हुई.

पुस्तक का प्रकाशन अहमदाबाद के दरियापुर के महागुजरात दलित नवयुवक मंडल ने किया और इसे अहमदाबाद के धलावरगढ़ में स्थित मंसूर प्रिंटिंग प्रेस में छापा गया.

पुस्तक में जहां कीमत दर्ज की जाती है, वहां बस "अनमोल" लिखा था. उस समय इस पुस्तक की कोई कीमत निश्चित नहीं की गई.

साहित्यिक अर्थ में इस पुस्तक का प्रकाशन इसके विशाल ऐतिहासिक और भावनात्मक मूल्य को व्यक्त करता है.

यूएम सोलंकी कौन थे? image Amit P. Jyotikar लेखक यूएम सोलंकी, दूरदर्शी करशनदास लेउवा और दानकर्ता कांजीभाई दवे की तस्वीरें इस पुस्तक में सम्मान के प्रतीक के रूप में छापी गईं

यूएम सोलंकी पेशेवर लेखक नहीं थे, लेकिन वह डॉ.आंबेडकर के विचारों और लेखन से अच्छी तरह परिचित थे.

करशनदास लेउवा की तरह ही वह भी आंबेडकरवादी कार्यकर्ता और आंबेडकर के काम के प्रशंसक थे. इसी भावनात्मक जुड़ाव ने उन्हें गहराई के साथ पूरे जुनून से जीवनी लिखने में मदद की.

सोलंकी अंग्रेजी और गुजराती दोनों में पारंगत थे. इस पुस्तक को लिखने के लिए उन्होंने आंबेडकर के सभी भाषणों और अंग्रेजी में लिखे लेखों का अध्ययन किया.

आंबेडकर की विचारधारा के बारे में उनकी व्यक्तिगत समझ ने उन्हें जीवनी को स्पष्टता और सटीकता के साथ लिखने मदद की.

हाल ही में जीवनी को पुन: प्रकाशित करने वाले संपादक और अनुवादक अमित ज्योतिकर ने कहा, "यूएम सोलंकी ने पूरी किताब हाथ से लिखी. उनकी भाषा बहुत ही कोमल थी, लेकिन छुआछूत जैसी कुप्रथा की आलोचना करने में उन्होंने जरा सा भी संकोच नहीं किया. उन्होंने बिना कठोर शब्दों का इस्तेमाल किए हुए अन्यायपूर्ण सामाजिक संरचनाओं के ख़िलाफ़ मज़बूती से अपना पक्ष रखा."

यूएम सोलंकी अहमदाबाद के खानपुर रोड पर रानीकुंज में रहते थे.

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पहली जीवनी का पुन: प्रकाशन कैसे हुआ? image Getty Images/Amit P. Jyotikar जीवनी के नए संस्करण के लिए पुस्तक को गुजराती से अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है

डॉ. आंबेडकर की 1940 में लिखी गई जीवनी को 2023 में फिर से प्रकाशित किया गया है. इसके प्रकाशक डॉ. अमित प्रियदर्शी हैं.

जीवनी के नए संस्करण के लिए पुस्तक को गुजराती से अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है, जिससे यह पुस्तक ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचाई जा सके.

अंग्रेजी अनुवाद के साथ-साथ मूल गुजराती भी है.

डॉ. अमित ज्योतिकर ने बीबीसी को बताया, "हमने पुस्तक को उसी तरह से पुन: प्रकाशित किया है, जैसा कि वह मूल संस्करण में थी. हमने मूल व्याकरण संबंधी त्रुटियों और भाषा को भी बरकरार रखा है. यह केवल एक पुस्तक नहीं है- यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है."

डॉ. अमित ज्योतिकर ने कहा कि हम चाहते हैं कि दुनिया को पता चले कि डॉ.आंबेडकर की पहली जीवनी गुजराती में थी.

दोबारा प्रकाशन में विजय सुरवड़े की भूमिका image Vijay Surwade डॉ. आंबेडकर की दूसरी पत्नी सविता आंबेडकर के साथ उनके करीबी सहयोगी विजय सुरवड़े

महाराष्ट्र के आंबेडकरवादी लेखक विजय सुरवड़े इस ऐतिहासिक पुस्तक को फिर से जीवंत करने में अहम साक्षी रहे हैं.

विजय सुरवड़े, एक फोटोग्राफर और ऐतिहासिक दस्तावेजों के संग्रहकर्ता और डॉ. आंबेडकर की दूसरी पत्नी सविता आंबेडकर के करीबी सहयोगी थे.

पुन: प्रकाशित पुस्तक की भूमिका में सुरवड़े लिखते हैं, "मैं कई वर्षों से पत्रों के माध्यम से प्रियदर्शी ज्योतिकर के संपर्क में था. मैं आईडीबीआई बैंक में काम करता था."

"जब मेरा तबादला ऑडिट विभाग में हुआ, तो मैं किसी काम के सिलसिले में अहमदाबाद गया और यहां ज्योतिकर से व्यक्तिगत रूप से मुलाकात की. उनके पास डॉ.आंबेडकर की दुर्लभ तस्वीरें थीं."

उन्होंने लिखा, "22 अगस्त 1993 को मैं उनके घर गया और उनके संग्रह में डॉ. आंबेडकर की पहली जीवनी की एक मूल प्रति मिली. यह एक अमूल्य दस्तावेज था."

"मैंने इसे अपने पास सुरक्षित रखने के लिए इसकी फोटोकॉपी ली."

वह कहते हैं, "प्रियदर्शी ज्योतिकर का 2020 में निधन हो गया. कुछ महीने बाद उनके बेटे अमित ज्योतिकर ने मुझे फ़ोन पर यूएम सोलंकी की डॉ. आंबेडकर पर लिखी गई जीवनी को फिर से प्रकाशित करने की इच्छा व्यक्त की. उस समय तक मूल पुस्तक बहुत ख़राब हालत में थी और यह पढ़ने लायक नहीं थी."

सौभाग्य से विजय सुरवड़े के पास 1993 की वह फोटोकॉपी थी. उन्होंने तत्काल ही अमित प्रियदर्शी को यह कॉपी सौंप दी, लेकिन वो कॉपी भी पढ़ने लायक नहीं थी. फिर स्कैन करके इसे छपने लायक बनाया गया.

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डॉ. आंबेडकर के बारे में किताब क्या कहती है? image Getty Images डॉक्टर भीमराव आंबेडकर की दूसरी पत्नी सविता पेशे से डॉक्टर थीं.

यह पुस्तक 1940 में लिखी गई थी और इसके प्रकाशन के 16 साल बाद तक डॉ. आंबेडकर जीवित रहे.

इस दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण आंदोलनों का नेतृत्व किया और भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने में मुख्य भमिका निभाई और अंत में बौद्ध धर्म अपना लिया.

इसके बाद की घटनाओं को किताब में शामिल नहीं किया गया है, लेकिन इससे इसका महत्व कम नहीं होता है. यह डॉ. आंबेडकर के शुरुआती जीवन और सक्रियता के कई अज्ञात पहलुओं से अवगत कराती है.

पुस्तक का महत्व इससे ही समझा जा सकता है कि इसकी शुरुआत में नासिक में हुए ऐतिहासिक येवला अधिवेशन का वर्णन है.

यहां आंबेडकर ने बहुत ही साहसिक घोषणा की थी, "मैं हिंदू के रूप में पैदा हुआ हूँ, लेकिन मैं हिंदू के रूप में नहीं मरूँगा."

उन्होंने औपचारिक रूप से 1965 में नागपुर में बौद्ध धर्म अपना लिया था, लेकिन इस शुरुआती बयान ने उनके आध्यात्मिक और वैचारिक परिवर्तन की शुरुआत को चिह्नित किया.

किताब में लाहौर की ऐतिहासिक घटना को भी शामिल किया गया है. यहां आंबेडकर को जाति पर बोलने के लिए जात-पात तोड़क मंडल ने आमंत्रित किया था.

उनका भाषण पढ़ने के बाद आयोजकों ने इसे बहुत रेडिकल पाया और उनका निमंत्रण रद्द कर दिया. इस कारण आंबेडकर भाषण नहीं दे सके.

इसे बाद में 'जाति का विनाश' नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया. इस समय यह दुनिया भर में जातिवाद की एक शक्तिशाली आलोचना की पुस्तक बनी हुई है.

पहली जीवनी आंबेडकर की शिक्षा, भारत और दुनिया भर में उनके प्रसिद्ध भाषणों और वैश्विक नेताओं और बुद्धिजीवियों के साथ उनकी बातचीत का विस्तृत विवरण प्रदान करती है.

यह महात्मा गांधी और डॉ. आंबेडकर के बीच वैचारिक मतभेदों को भी बताती है. जाति और धर्म पर आंबेडकर के मूल विचारों पर विस्तार से चर्चा की गई है.

यूएम सोलंकी अहमदाबाद से थे, इसलिए पुस्तक में डॉ. आंबेडकर की शहर की यात्रा का विस्तृत विवरण भी दिया गया है. वह किससे मिले और उनका स्वागत कैसे किया गया?

पिछले कुछ वर्षों में डॉ. आंबेडकर की कई जीवनी प्रकाशित हुई हैं. इनमें 1946 में तानाजी बालाजी खारवटेकर ने कराची से डॉ. आंबेडकर नामक जीवनी प्रकाशित की.

1947 में रामचंद्र बनौधा ने हिंदी में एक और जीवनी प्रकाशित की.

प्रसिद्ध मराठी इतिहासकार धनंजय कीर ने 1954 में एक जीवनी लिखी थी, जिसे आज भी आंबेडकर के जीवन पर सबसे प्रामाणिक कार्यों में से एक माना जाता है.

आंबेडकर के करीबी सहयोगी चांगदेव खैरमोड़े ने 12 भागों में विस्तृत जीवनी लिखी, जिसका पहला खंड 1952 में प्रकाशित हुआ.

वैसे तो कई जीवनी लिखी गई हैं, लेकिन यूएम सोलंकी द्वारा लिखी गई जीवनी पहली है. ऐसे में इसका ऐतिहासिक महत्व बहुत अधिक हो जाता है.

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