अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दुनिया भर के देशों पर जब पहली बार टैरिफ़ लगाया तो चीन ने सबसे मुखर प्रतिक्रिया दी.
अप्रैल, 2025 में टैरिफ़ को लेकर चीन और अमेरिका के बीच तनाव चरम पर था. तब अमेरिका ने चीन पर 145 प्रतिशत और चीन ने अमेरिका पर 125 फ़ीसदी टैरिफ़ लगा दिए थे.
बाद में जिनेवा में हुई वार्ता के बाद अमेरिका ने टैरिफ़ को 145 प्रतिशत से घटाकर 30 प्रतिशत और चीन ने इसे 125 प्रतिशत से 10 प्रतिशत कर दिया था.
आज भारत 50 फ़ीसदी अमेरिकी टैरिफ़ का सामना कर रहा है और यह सवाल कई लोगों के मन में है कि भारत ने चीन जैसी प्रतिक्रिया क्यों नहीं दी? क्या भारत के पास चीन की तरह जवाबी टैरिफ़ लगाने का मौक़ा था?
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अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर 50 प्रतिशत का टैरिफ़ लगाया है, जो कि एशिया क्षेत्र में सबसे ऊंचा अमेरिकी टैरिफ़ है. ये टैरिफ़ 27 अगस्त से लागू हो गया.
पहले ट्रंप ने भारत पर 25 प्रतिशत का टैरिफ़ लगाया था. इसके बाद भारत के रूस से तेल ख़रीदने पर नाराज़गी जताते हुए ट्रंप ने 25 प्रतिशत के अतिरिक्त टैरिफ़ की भी घोषणा कर दी थी. हालांकि कहा जा रहा है कि रूसी तेल बहाना है क्योंकि चीन, तुर्की और ईयू भी रूस से तेल ख़रीद रहे हैं.
भारत ने सवाल भी किया कि अमेरिका और यूरोप ख़ुद रूस से यूरेनियम के साथ उर्वरक ख़रीदते हैं, ऐसे में भारत के ख़िलाफ़ दोहरे मापदंड क्यों अपनाए जा रहे हैं?
जयंत दासगुप्ता विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में भारत के राजदूत (2010-14) रह चुके हैं.
अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस के लिए लिखे लेख में उन्होंने इस बात को समझाने की कोशिश की है कि भारत के लिए अमेरिका पर टैरिफ़ लगाने की राह आसान क्यों नहीं है?
जयंत दासगुप्ता लिखते हैं, "भारत के बड़े आयात अमेरिका से खनिज ईंधन और तेल, कटे और बिना घिसे हीरे, मशीनरी, ऑर्गेनिक केमिकल्स, प्लास्टिक और फल-सूखे मेवे हैं. इनमें से ज़्यादातर उत्पाद कच्चे माल या इंटरमीडिएट स्तर के होते हैं. अमेरिका पर टैरिफ़ लगाकर जवाबी कार्रवाई करने से भारत की घरेलू और निर्यात दोनों बाज़ारों को ही नुक़सान होगा. इसके अलावा, टैरिफ़ पर जवाबी कार्रवाई से सर्विस सेक्टर में भी नुक़सान हो सकता है, जिसे टालना ज़रूरी है."
जयंत दासगुप्ता का मानना है, "चीन को छोड़कर बाक़ी बड़े देशों ने अमेरिकी दबाव मान लिया है और 10 फ़ीसदी (ब्रिटेन के लिए) या उससे ज़्यादा टैरिफ़ झेलने के लिए तैयार हो गए हैं, इसलिए भारत को निकट भविष्य में कोई राहत मिलने की संभावना बहुत कम है."
"हाँ, यह हो सकता है कि अमेरिका में नवंबर 2026 के मध्यावधि चुनावों से पहले बढ़ती महंगाई, नौकरियों का नुक़सान और ट्रंप समर्थकों की नाराज़गी अमेरिका की नीतियों को थोड़ा नरम कर दे."

विशेषज्ञों का मानना है कि चीन की तरह अमेरिका पर टैरिफ़ लगाना भारत के लिए आर्थिक नज़रिए से फ़ायदेमंद नहीं होगा. उनका कहना है कि भारत के लिए सही रास्ता है कूटनीति, घरेलू अर्थव्यवस्था को मज़बूत करना और दूसरे देशों के साथ व्यापार समझौते करना ताकि ट्रंप द्वारा लगाए गए टैरिफ़ के असर को कम किया जा सके.
भूटान के अख़बार 'द भूटनीज़' के संपादक तेनज़िंग लामसांग का कहना है कि भारत ने चीन की तरह रास्ता नहीं चुना और इसकी ठोस वजहें हैं.
तेनज़िंग लामसांग एक्स पर लिखते हैं, "भारत की दिक़्क़त ये है कि चीन की तरह उसके पास रेयर अर्थ मिनरल्स जैसा कोई अहम हथियार नहीं है, जिससे अमेरिकी टेक्नोलॉजी और डिफ़ेंस सेक्टर को बड़ा झटका दिया जा सके. भारत के निर्यात भी ऐसे नहीं हैं, जिन्हें बदला न जा सके. दूसरे देश आसानी से भारत की जगह ले सकते हैं."
आनंद राठी वेल्थ लिमिटेड के चीफ़ इकोनॉमिस्ट और एग्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर सुजान हाजरा ने अंग्रेज़ी अख़बार मिंट से बातचीत में कहा, "सबसे ज़्यादा परेशान करने वाली बात ये है कि भारत को अलग-थलग किया गया है. अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगी अब भी रूस से व्यापार कर रहे हैं, लेकिन केवल भारत को निशाना बनाया गया है. ऐसे में भारत की ओर से जवाबी टैरिफ़ के रूप में सिर्फ़ प्रतीकात्मक प्रतिक्रिया देना सही नहीं रहेगा."
तेनज़िंग लामसांग का मानना है कि अगर भारत ने अमेरिका पर टैरिफ़ लगाया तो ट्रंप ग़ुस्से में भारत पर और अधिक टैरिफ़ लगा सकते हैं.
वह लिखते हैं, "कुछ लोग कहते हैं कि भारत को भी चीन की तरह अमेरिका पर जवाबी टैरिफ़ लगाना चाहिए लेकिन भारत ने ऐसा रास्ता नहीं चुना और इसके पीछे ठोस वजह है. ग़ुस्से में ट्रंप भारत पर और ज़्यादा टैरिफ़ बढ़ा देंगे और यह भारत के लिए घाटे का सौदा होगा क्योंकि भारत अमेरिका को जितना निर्यात करता है, उससे कहीं कम आयात करता है. भारत की अर्थव्यवस्था और टेक्नोलॉजी विकास की स्थिति को देखते हुए, ट्रंप के ख़िलाफ़ भारत के पास कोई आर्थिक विकल्प नहीं है."
इक्विनॉमिक्स रिसर्च के फ़ाउंडर जी. चोक्कालिंगम का कहना है कि भारत की अमेरिका पर आईटी सेवाओं के निर्यात के मामले में भारी निर्भरता है.
उन्होंने कहा, "मुझे नहीं लगता कि भारत का जवाबी टैरिफ़ लगाना सही होगा क्योंकि हमारा आईटी निर्यात लगभग 140 अरब डॉलर का है. अगर अमेरिका प्रतिक्रिया देता है तो हम बहुत कठिनाई में पड़ जाएंगे."
वित्त वर्ष 2023-24 में भारत की कुल सॉफ़्टवेयर और आईटी सेवाओं का निर्यात लगभग 200 अरब डॉलर था. इनमें से 54.7 प्रतिशत यानी109.4 अरब डॉलर अमेरिका को निर्यात किए गए, जो इस सेक्टर में अमेरिका का हिस्सा सबसे बड़ा है.
साल 2024-25 में भारतीय आईटी सेक्टर का निर्यात 224.4 अरब डॉलर तक पहुंच गया, जिसमें अमेरिका प्रमुख बाज़ार रहा.
रूस का तेल भारत के हक़ में या अमेरिका से व्यापार?रूसी तेल पर मिलने वाली छूट हाल ही में कम हो गई है. मई में भारतीय ख़रीदारों ने रूस से लिए गए कच्चे तेल पर सऊदी अरब से ख़रीदे गए तेल की तुलना में सिर्फ़ 4.50 डॉलर प्रति बैरल कम दाम चुकाया. 2023 में यह अंतर 23 डॉलर प्रति बैरल से ज़्यादा था.
क्रेडिट रेटिंग एजेंसी आईसीआरए के अनुसार, मार्च 2025 तक भारत ने तेल ख़रीद पर लगभग 3.8 अरब डॉलर की बचत की क्योंकि रूसी तेल पर छूट कम हो गई. लेकिन पिछले साल भारत ने अमेरिका को लगभग87 अरब डॉलर का माल निर्यात किया.
वॉरेन पैटरसन, सिंगापुर में आईएनजी ग्रुप में कमोडिटी रणनीति के प्रमुख हैं.
ब्लूमबर्ग से बातचीत में पैटरसन कहते हैं, "अगर आप देखें कि भारत का अमेरिका से व्यापार कितना बड़ा है और रूस से तेल लेकर कितनी बचत होती है, तो साफ़ है कि भारत क्या करेगा. क्या आप कुछ अरब की तेल छूट बचाने के लिए 87 अरब डॉलर के अमेरिकी निर्यात को खतरे में डालेंगे?"
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भारत और रूस के बीच लंबे समय से संबंध रहे हैं, जिनमें द्विपक्षीय व्यापार और निवेश के रिश्ते सोवियत काल से चले आ रहे हैं. समय के साथ दोनों देशों ने आर्थिक सहयोग को मज़बूत किया है और द्विपक्षीय व्यापार रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है.
सोवियत संघ के बाद के दौर में भी भारत-रूस व्यापार रिश्ते बढ़ते रहे. 1995 में जहां यह 1.4 अरब डॉलर था, वहीं वित्त वर्ष 2024-25 में बढ़कर 68.7 अरब डॉलर हो गया.
निवेश के क्षेत्र में भी दोनों देशों ने सहयोग मज़बूत किया है. भारतीय कंपनियों ने रूस के तेल-गैस, दवा और आईटी क्षेत्रों में निवेश किया है जबकि रूसी कंपनियों ने भारत की ऊर्जा, बुनियादी ढांचे और विनिर्माण क्षेत्रों में निवेश किया है.
भारत और रूस के बीच द्विपक्षीय व्यापार वित्त वर्ष 2024-25 में रिकॉर्ड 68.7 अरब डॉलर तक पहुंचा, जो कोविड महामारी से पहले के 10.1 अरब डॉलर के मुकाबले लगभग 5.8 गुना ज़्यादा है.
इसमें भारत के 4.88 अरब डॉलर के निर्यात और रूस से 63.84 अरब डॉलर का आयात शामिल है.
ट्रंप ने अमेरिका पर 25 फ़ीसदी अतिरिक्त टैरिफ़ यह कहते हुए लगाया है कि भारत रूस से कच्चा तेल खरीदकर उसकी यूक्रेन के ख़िलाफ़ जंग में आर्थिक मदद कर रहा है.
अगर भारत रूस से कच्चा तेल ख़रीदना बंद कर दे तो क्या ट्रंप भारत के ऊपर लगे टैरिफ़ हटा देंगे? जयंत दासगुप्ता का मानना है कि भारत अगर तेल ख़रीदना बंद कर दे तो संभव है कि ट्रंप गोलपोस्ट बदल दें.
वह लिखते हैं, "ट्रंप ने यूरोप और चीन पर कोई टैरिफ़ नहीं लगाया जबकि ये दोनों रूस के सबसे बड़े ऊर्जा ख़रीदार हैं. अगर भारत रूसी तेल की खरीद बंद भी कर देता तो शर्तें बदलकर रूसी रक्षा उपकरण खरीद रोकने, ब्रिक्स से बाहर निकलने और दूसरे देशों की मुद्रा में व्यापार न करने तक जा सकती थीं."
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जानकारों का कहना है कि ट्रंप के टैरिफ़ के ख़िलाफ़ भारत को अपनी अर्थव्यवस्था मज़बूत करनी होगी और दुनिया के अन्य बाज़ारों में भी विकल्प तलाशने होंगे.
तेनज़िंग लामसांग कहते हैं, "ट्रंप और उनकी टीम का रवैया 'हास्यास्पद' है और भारत के ख़िलाफ़ यह नीति लंबे समय में अमेरिका के लिए गंभीर रणनीतिक नुकसान साबित होगी. ख़ासकर तब जब चीन पहले से उसका वैश्विक प्रतिद्वंद्वी है. लेकिन हालात यही हैं और भारत के लिए इससे सीखने की ज़रूरत है."
लामसांग का मानना है कि मौजूदा चुनौतियों से निपटने के लिए भारत को ये करना होगा:
- बड़े आर्थिक सुधार करने होंगे ताकि उसकी अर्थव्यवस्था मज़बूत हो.
- सुधार के लिए आपसी सामंजस्य और स्थिरता चाहिए.
- अपने पड़ोसियों से, यहां तक कि 'दुश्मन देशों' से भी, कूटनीतिक रिश्ते बेहतर करने होंगे.
- चीन की तरह भारत को भी वक्त का इंतज़ार करना चाहिए, शांति से काम लेना चाहिए और अंदर से मज़बूत होना चाहिए.
क्या भारत इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में जा सकता है?
जयंतदास गुप्ता बताते हैं, "डब्ल्यूटीओ में विवाद सुलझाने की दो-स्तरीय व्यवस्था है. दूसरे स्तर पर अपील का फैसला सात स्थायी सदस्यों वाली एक टीम (अपील बॉडी) के तीन सदस्य करते हैं. इन सातों सदस्यों को सभी देशों की सहमति से चुना जाता है. लेकिन ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में नए सदस्यों की नियुक्ति रोक दी. 2019 से इस बॉडी में कोई सदस्य नहीं है. इसलिए अब यह व्यवस्था काम नहीं कर रही. ऐसे में अमेरिका के ख़िलाफ़ केस करना सिर्फ़ औपचारिकता होगी."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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