14 फ़रवरी, 2019 को पूरी दुनिया ने जम्मू-श्रीनगर राजमार्ग पर पुलवामा में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस फ़ोर्स (सीआरपीएफ़) के क़ाफ़िले पर एक ज़बरदस्त आत्मघाती हमले की ख़बर सुनी जिसमें 40 भारतीय सुरक्षाकर्मी मारे गए.
इस हमले के लिए चरमपंथी संगठन जैश-ए-मोहम्मद को ज़िम्मेदार ठहराया गया जिसके बारे में भारत का मानना है कि उसका मुख्यालय पाकिस्तान में है. लेकिन पाकिस्तान इससे हमेशा इंकार करता रहा है.
इस हमले की जाँच के लिए भेजे गए 12 सदस्यीय एनआईए के दल ने पुष्टि की कि इस हमले में 300 किलो विस्फोटक इस्तेमाल हुआ जिसमें 80 किलो हाई क्लास आरडीएक्स शामिल था.
इस हमले के 12 दिन बाद भारत ने बालाकोट में हवाई हमला किया जिसे इसका जवाब बताया गया, भारत का कहना था कि उसने जैश-ए-मोहम्मद के ट्रेनिंग कैंप को निशाना बनाया.
भारत और पाकिस्तान के बीच हालिया संघर्ष के बीच एक बार फिर मौलाना मसूद अज़हर और जैश-ए-मोहम्मद की चर्चा हुई है.
भारत ने जैश-ए-मोहम्मद के मुख्यालय को भी निशाना बनाने की कोशिश की, जिसमें मसूद अज़हर के कुछ नज़दीकी रिश्तेदारों की मौत हुई.
हूजी, हरकत-उल-अंसार से जैश-ए-मोहम्मद तकजैश-ए-मोहम्मद की स्थापना सन 2000 में हुई थी लेकिन इसके इतिहास को समझने के लिए थोड़ा और पीछे जाना होगा.
सन 1979 में कराची बिनोरिया टाउन मस्जिद के छात्र इरशाद अहमद ने अफ़ग़ानिस्तान में रूसियों के ख़िलाफ़ सशस्त्र जिहाद के लिए हरकत-उल-जिहाद-अल-इस्लामी (हूजी) की स्थापना की थी.
सन 1984 में हूजी में विभाजन हो गया और पश्तून कमांडर फ़ज़लुर्रहमान ख़लील ने हरकत-उल-मुजाहिदीन की स्थापना की लेकिन नौ साल बाद 1993 में हूजी और हरकत-उल-मुजाहिदीन फिर से एक हो गए और इस संगठन का नाम हरकत-उल-अंसार रखा गया.
इस एकीकरण में मसूद अज़हर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. ये साथ चार साल तक चला.
हरकत-उल-अंसार के अरब-अफ़ग़ानों के साथ संपर्क के कारण अमेरिका ने सन 1997 में इस पर प्रतिबंध लगा दिया, लेकिन एक साल बाद इस प्रतिबंध को चकमा देते हुए इसका जमात-उल-अंसार के रूप में फिर से उदय हुआ जिस पर परवेज़ मुशर्रफ़ ने फिर प्रतिबंध लगा दिया.
मसूद अज़हर को जब सन 1994 में कश्मीर में गिरफ़्तार किया गया तब वो हिज़्बुल मुजाहिदीन का सदस्य था.
सन 2000 में हुई जैश की स्थापनादिसंबर, 1999 में कंधार में भारतीय यात्री विमान के हाइजैक के बाद, भारतीय खुफ़िया अधिकारी मानते हैं कि भारतीय जेल से छूटकर मसूद ने अफ़ग़ानिस्तान का दौरा किया जहाँ मुल्ला उमर और ओसामा बिन लादेन से मुलाक़ात भी हुई, हालांकि इसकी तस्दीक नहीं हो सकी.
स्टेनफ़र्ड यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सिक्योरिटी एंड कोऑपरेशन के लेख 'जैश-ए-मोहम्मद मैपिंग मिलिटेंट्स प्रोफ़ाइल' में लिखा गया है, "अपनी रिहाई के बाद मसूद अज़हर हिज़्बुल मुजाहिदीन में चल रही फूट से ख़ुश नहीं था. आख़िर उसने 4 फ़रवरी, सन 2000 को कराची की मस्जिद-ए-फ़लाह में एक अलग संगठन जैश-ए-मोहम्मद बनाने का ऐलान कर दिया जिसका शब्दिक अर्थ था 'पैग़म्बर मोहम्मद की सेना'. इसका मुख्य कारण था कश्मीर जिहाद के मुद्दे पर उसका हिज़्बुल मुजाहिदीन के प्रमुख मौलाना फ़ज़लुर्रहमान ख़लील से वैचारिक मतभेद."
इस घोषणा के बाद हिज़्बुल मुजाहिदीन के तीन-चौथाई सदस्यों ने जैश-ए-मोहम्मद की सदस्यता ले ली.
कश्मीर हेराल्ड में 12 अप्रैल, 2022 में छपे एक लेख में बताया गया है कि "भारत से रिहाई के बाद मसूद को आईएसआई ने नए संगठन के लिए धन इकट्ठा करने के इरादे से एक 'प्रतिष्ठित व्यक्ति' के तौर पर पूरे पाकिस्तान में घुमवाया."
मसूद ने पूरे पाकिस्तान का दौरा करके भड़काऊ भाषण दिए. कराची में सन 2000 में दिए एक भाषण में मसूद ने कहा, "जिहाद के लिए शादी करो. जिहाद के लिए बच्चे पैदा करो और जिहाद के लिए तब तक धन कमाओ जब तक अमेरिका और भारत के अत्याचार समाप्त नहीं हो जाते."
अमेरिकी रक्षा विश्लेषक ब्रूस राइडल ने डेली बीस्ट के 5 जनवरी, 2016 के अंक में लिखा, "मसूद को रिहाई के बाद हुई जन सभाओं में एक 'हीरो' की तरह पेश किया गया."
बताया जाता है कि कुछ ही दिनों में संगठन इतना मज़बूत हो गया कि उसकी सदस्यता लेने के लिए उच्च स्तर की सिफ़ारिश की ज़रूरत पड़ने लगी.
भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों के अधिकारियों का कहना है कि जैश-ए-मोहम्मद में युवा लड़कों की भर्ती के लिए आईएसआई ने ख़ुद मुहिम चलाई.
भारत के इंटेलिजेंस ब्यूरो के पूर्व संयुक्त निदेशक अविनाश मोहाने ने इंडिया टुडे के 22 फ़रवरी, 2019 में छपे लेख 'जैश इज़ आईएसआईज़ स्टार्टअप' में लिखा था, "जैश की स्थापना लश्कर-ए-तैयबा को काउंटर करने के लिए की गई थी."
आतंकवाद और भारत की विदेश नीति पर कई किताबें लिखने वाले अभिनव पंड्या अपनी किताब 'इनसाइड द टेरिफ़ाइंग वर्ल्ड ऑफ़ जैश-ए-मोहम्मद' में लिखते हैं, "आईएसआई की हमेशा से ये रणनीति रही है कि कश्मीर में नियंत्रण और संतुलन बनाए रखने के लिए कई टेरर फ़्रंट बनाए जाएं और इस तरह का माहौल बनाया जाए कि किसी ख़ास संगठन का एकछत्र प्रभाव न बन जाए और उसकी एक संगठन पर कम-से-कम निर्भरता रहे ताकि उसका अलग-अलग मिलिटेंट संगठनों पर नियंत्रण बरकरार रहे."
मसूद अज़हर का जन्म 10 जुलाई, 1968 को बहावलपुर, पाकिस्तान में हुआ था.
हरिंदर बावेजा ने हिंदुस्तान टाइम्स के 15 मार्च 2019 के अंक में 'मसूद अज़हर इनसाइड द माइंड ऑफ़ ग्लोबल टेरर मर्चेंट' लेख में लिखा है कि '29 जनवरी, 1994 को मसूद अज़हर ढाका के रास्ते दिल्ली पहुंचा था. भारत आने के लिए उसने पुर्तगाली पासपोर्ट का इस्तेमाल किया था जिसमें उसका नाम वली आदम ईसा लिखा हुआ था.'
नौ फ़रवरी को जब मसूद श्रीनगर से अनंतनाग जा रहा था उसकी कार ख़राब हो गई. उसने एक ऑटो रिक्शा किया जिसे सुरक्षा बलों ने जाँच के लिए रोक लिया.
हरिंदर बावेजा लिखती हैं 'मसूद के साथ चल रहे हरकत-उल-अंसार के सेक्शन कमांडर फ़ारूख़ ने गोली चला दी और भाग निकला लेकिन मसूद को सज्जाद अफ़ग़ानी के साथ गिरफ़्तार कर लिया गया.'

मसूद को कश्मीर की कई जेलों में रखा गया. एक बार उसे छुड़ाने के लिए जेल में सुरंग खोदी गई. लेकिन ऐसा दावा किया जाता है कि सुरंग के बीच में ही वो फंस गया.
प्रवीण स्वामी ने फ़्रंटलाइन के 5 दिसंबर, 2003 में छपे अपने लेख 'द कंधार प्लॉट' में लिखा, "जब मसूद अज़हर को सुरंग से खींचकर लाया गया तो सुरक्षाकर्मियों ने उसके शरीर का मज़ाक उड़ाते हुए कहा इस तरह के कमांडो टाइप ऑपरेशन उसके लिए नहीं हैं. अगली बार और चौड़ी सुरंग खोदना या अपना वज़न हल्का कर लेना. इस पर मसूद अज़हर ने जवाब दिया था, मुझे फिर सुरंग खोदने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी."
ये भी पढ़ें-मसूद को कुछ समय के लिए तिहाड़ जेल में भी रखा गया था जहाँ उसकी मशहूर अपराधी चार्ल्स शोभराज से भी जान पहचान हो गई थी.
बहरहाल, आईएसआई के लिए मसूद अपरिहार्य बन गया था. अभिनव पंड्या लिखते हैं, "राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) के संस्थापक आरवी राजू ने मुझे बताया था कि अज़हर पाकिस्तान की आईएसआई के लिए एक 'स्ट्रेटेजिक एसेट' था. वो कई आतंकवादियों का मरना बर्दाश्त कर सकते थे मसूद का नहीं."
"उन्हें एक ऐसे शख़्स की ज़रूरत थी जो युवाओं को बंदूक उठाने, मारने और मर जाने के लिए उकसा सके. बाकी लोग उनके लिए कैनन फ़ॉडर थे. लेकिन मसूद एक प्रचारक था. दूसरे आतंकवादियों और मसूद में यही फ़र्क था."
जैश के गठन के कुछ ही दिनों के बाद भारत की संसद पर हमला हुआ था जिसके लिए उसे ज़िम्मेदार माना गया था.
इस हमले में नौ सुरक्षाकर्मी मारे गए थे लेकिन इसकी टाइमिंग, लक्ष्य और परिणाम ने इसे बहुत बड़ा हमला बना दिया था. भारत ने इसे प्रजातंत्र के ऊपर हुए हमले के तौर पर देखा था.
रॉ के पूर्व प्रमुख एएस दुलत इसका विश्लेषण करते हुए कहते हैं, "संसद पर हमले को इस परिपेक्ष्य में देखा जाना चाहिए कि आईएसआई ने मसूद को रिहा करवाया, पूरे पाकिस्तान में उन्हें विजेता की तरह घुमाया गया. जैश के बनवाने में पैसे, आदमियों, ट्रेनिंग, हथियार जिसकी भी मदद हो सकती थी, उन्होंने दी. अब उन्हें भी उम्मीद जगी कि मसूद परिणाम देगा जिसकी उन्हें उस समय बेहद ज़रूरत थी."

इससे पहले 20 अप्रैल, 2000 को जैश के एक आत्मघाती बॉम्बर ने विस्फोटकों से भरी हुई कार बादामी बाग़ में घाटी की मुख्य सैनिक इकाई चिनार कोर हेटक्वार्टर्स से टकरा दी थी जिसमें चार सैनिक मारे गए थे.
इसके बाद अक्तूबर, 2001 में जैश फ़िदायीन ब्रिटिश नागरिक मोहम्मद बिलाल ने जम्मू कश्मीर विधानसभा पर हमला किया था जिसमें 38 लोग हताहत हुए थे.
आयशा सिद्दीक़ा 'द डिप्लोमैट' में छपे अपने लेख 'जैश-ए-मोहम्मद अंडर द हुड' में लिखती हैं, "मसूद ने मुशर्रफ़ की हत्या के प्रयास में अपने आदमी ज़रूर मुहैया कराए थे लेकिन इसके बाद वो सरकार से टकराव से बचते रहे. लाल मस्जिद मामले से भी उसने अपने-आप को दूर रखा. दूसरे जिहादी संगठन जहाँ लोगों को बेतरतीब ढंग से चुनकर सैनिक ट्रेनिंग के लिए भेजते थे. जैश ने इस तरीके़ में बदलाव किया है. वो पहले व्यक्ति को कड़ा वैचारिक प्रशिक्षण देते हैं और फिर सैनिक प्रशिक्षण और लड़ाई का नंबर आता है."
संयुक्त राष्ट्र ने एक प्रस्ताव के तहत जैश को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया था. पाकिस्तान को भी जनवरी, 2002 में भारी अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण जैश-ए- मोहम्मद पर प्रतिबंध लगाना पड़ा.
रोहन गुनारत्ना और स्टेफ़ानिया काम ने अपनी किताब हैंडबुक ऑफ़ टेररिज़्म इन द एशिया-पैसेफ़िक में लिखा, "लेकिन इसके बावजूद पाकिस्तानी सरकार ने जैश को अलग नाम जैसे 'खुद्दाम-उल इस्लाम' के तहत काम करने दिया.'' बाद में कई आत्मघाती हमलों में इस संगठन का नाम आने के बाद पाकिस्तान ने भी 'खुद्दाम-उल-इस्लाम' को नवंबर, 2003 में बैन कर दिया.
रामानंद गार्गे और सीडी सहाय ने अपने लेख 'राइज़ ऑफ़ जैश-ए-मोहम्मद इन कश्मीर वैली' में लिखा, "जैश के कुछ चोटी के कमांडरों जैसे अब्दुल जब्बार, उमर फ़ारूख़ और अब्दुल्लाह शाह मंज़र ने सन 2002 में विचारधारा और नेतृत्व पर मसूद के साथ मतभेदों के कारण जैश को छोड़कर एक नया संगठन 'जमात-उल-फ़ुरक़ान' बना लिया."
"जैश से निकले लोगों ने 14 और 25 दिसंबर, 2003 को जनरल मुशर्रफ़ की हत्या का प्रयास किया. पहले हमले में किसी की मौत नहीं हुई लेकिन दूसरे हमले में 14 लोग मारे गए. मुशर्रफ़ की हत्या के दो प्रयास और किए गए."
मुशर्रफ़ ने इसका ज़िक्र अपनी आत्मकथा 'इन द लाइन ऑफ़ फ़ायर' में किया है.
जब भारतीय नेतृत्व और अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने मसूद के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के लिए पाकिस्तान पर दबाव बनाया तो पाकिस्तान ने मसूद को घर में नज़रबंद कर दिया.
लेकिन सन 2014 में फ़रवरी के पहले हफ़्ते में पाकिस्तान ने मसूद अज़हर की आवाजाही पर लगी रोक को हटाते हुए मुज़फ़्फ़राबाद में हज़ारों लोगों की भीड़ को संबोधित करने की इजाज़त दे दी.
ख़ालिद अहमद ने अपनी किताब 'स्लीप वॉकिंग टू सरेंडर डीलिंग विद टेररिज़्म इन पाकिस्तान' में लिखा, "मसूद का काम था अफ़ज़ल गुरु को फाँसी दिए जाने के लिए भारत को कटघरे में खड़ा करना. गुरू को संसद पर हमला करने में जैश की मदद करने के लिए फाँसी दी गई थी. मसूद ने मुशर्रफ़ को न बख़्शते हुए कहा, 'मुशर्रफ़ ने पाकिस्तान को अमेरिका की कठपुतली बना दिया है जिसने अफ़गानिस्तान के मासूम लोगों के नरसंहार के लिए अपने सारे संसाधन उपलब्ध करा दिए हैं'."
कई जगहों पर इस बात का ज़िक्र है कि जैश-ए-मोहम्मद में मसूद के परिवार का बहुत प्रभाव है. मसूद के भाई और बहनोई को लेकर मीडिया रिपोर्ट्स में लगातार दावा किया जाता रहा है कि वे सब अलग-अलग ज़िम्मेदारियों को संभालते हैं.
मसूद अज़हर की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि सात मई की रात हुए भारतीय हमले में इस परिवार के कई सदस्य मारे गए हैं लेकिन पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि परिवार का कौन-कौन व्यक्ति मारा गया है.
'साउथ एशियन टेररिज्म पोर्टल' में छपी जम्मू कश्मीर डेटाशीट के अनुसार, सन 2000 से 2019 के बीच इस प्रदेश में कुल 87 आत्मघाती हमले हुए जिसमें 130 नागरिक, 239 सुरक्षाकर्मी और 143 आतंकवादी मारे गए.
इन 87 हमलों में जैश-ए-मोहम्मद ने 12 हमले किए. इन 12 हमलों में उसने 31 आम लोगों और 99 सैनिकों को मारा जबकि उसके सिर्फ़ 30 आतंकवादी मारे गए.

जैश के काम करने के तरीके पर नज़र दौड़ाते हुए अभिनव पंड्या लिखते हैं, "कश्मीर में काम करने वाले दूसरे मिलिटेंट संगठनों की तुलना में जैश का काडर बहुत लो-प्रोफ़ाइल रखता है. गोपनीयता बनाए रखने के लिए वो अपने काडर की संख्या छोटी रखते हैं. लश्कर और हिज़्बुल मुजाहिदीन की तुलना में हर ज़िले में जैश की काडर संख्या बहुत कम है."
ख़ुफ़िया विभाग के अधिकारियों के मुताबिक़, सन 2016 में गिरफ़्तार किए गए जैश चरमपंथी अब्दुल रहमान मुग़ल ने जाँचकर्ताओं को कुछ जानकारी दी थी जिसके मुताबिक, 'उन्हें कश्मीरी भाषा बोलने का भी प्रशिक्षण दिया जाता है. ट्रेनिंग हो जाने के बाद उन्हें एके-47 के 10 राउंड, पीका गन के पाँच राउंड, पिस्टल के सात राउंड और दो ग्रेनेड अभ्यास के लिए दिए जाते हैं.'
अब तक हुई ख़ुफ़िया एजेंसियों की छानबीन से पता चलता है कि आमतौर से जैश के लोग पच्चीस साल से कम उम्र के नौजवानों को भर्ती करते हैं जो अधिक पढ़े लिखे न हों.
अभिनव पंड्या लिखते हैं, "उनको उनके माता-पिता के घर से चार या छह घंटे की दूरी पर मदरसों में भर्ती किया जाता है. मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों को अपने अभिभावकों और बाहरी दुनिया से संपर्क करने की छूट नहीं होती. उनमें बचपन से ही जिहाद के लिए प्रेरित किया जाता है."
इस संगठन ने पाबंदियों के बीच भी खुद को अब तक बचाए रखा है. इसकी वजहों का ज़िक्र करते हुए आयशा सिद्दीक़ा ने 'द डिप्लोमैट' के 13 मार्च, 2019 के अंक में लिखा था, "ख़ुफ़िया एजेंसियों के संरक्षण के कारण पाकिस्तान की करीब-करीब हर सरकार जैश पर नियंत्रण रखने में नाकाम रही है."
पाकिस्तान के गृह मंत्री रहे राना सनाउल्लाह ने कहा था, "हम इन संगठनों को छू तक नहीं सकते क्योंकि उनका नियंत्रण दूसरी जगह से होता है. मसूद अज़हर के पाकिस्तान के खुफ़िया तंत्र से संबंधों के कारण किसी के लिए भी उसके ख़िलाफ कार्रवाई करना हमेशा से ही मुश्किल काम रहा है."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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